अगर मैं पंच होता कविता

अगर मैं पंच होता




        अगर मैं पंच होता

मैं न्याय और धर्म के सर्वोच्च आसन पर बैठा होता

न्याय की चादर से लिपटा होता 

या उत्तरदायित्व में सिमटा होता

तब मुझे न जाति की समझ होती 

न रंगभेद का भाव होता

न किसी से अलगाव होता

न किसी से लगाव होता ।


अगर मैं पंच होता

न किसी से वफा 

न अपेक्षा मुनाफा होता

मेरे सामने एक खाली मैदान का दृश्य होता

और उस मैदान में लगा एक न्याय का वृक्ष होता

मेरे मुख से जो कुछ निकलता 

देववाणी सदृश होता।

असत्य का वेश न होता

मेरे मनोविकारों का 

कदापि समावेश न होता। 

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